Saturday, 16 November 2013

श्री राम स्तुति Shri Ram Stuti



           


श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं |
नवकंज-लोचनकंज-मुखकर-कंज पद कंजारुणं ||


हे मनकृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर 
वे संसार के जन्म-मरणरूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं
उनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं
मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं |

कंदर्प अगणित अमित छबिनवनील-नीरद सुंदरं |
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं ||

उनके सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है
उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है
पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानो बिजली के सामान चमक रहा है
ऐसे पावन रूपजानकी पति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ |

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं |
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं ||

हे मन ! दीनों के बन्धुसूर्य के सामान तेजस्वी
दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले
आनंदकंदकोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान 
दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर |

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं |
आजानुभुज शर-चाप-धरसंग्राम-जित-खरदूषणं ||

जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुटकानों में कुंडल,
 भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं,
 जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैंजो धनुष-बाण लिए हुए हैं,
जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है -

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं |
मम ह्रदय-कंज निवास कुरुकामादि खल-दल-गंजनं ||

जो शिवशेषऔर मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले 
और कामक्रोधलोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं
तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे 
श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें |

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो |
करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो ||

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है
वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजीतुमको मिलेगा |
 वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञहै
तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है |

एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली |
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली |

इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी 
समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं 
तुलसीदासजी कहते हैं - भवानीजी को बार-बार 
पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं |

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि |
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ||

गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में 
जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता 
सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे |







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